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अमरनाथ यात्राः जानिए पवित्र गुफा का इतिहास, कौन हैं इसके दो बड़े दुश्मन


रणघोष खास. देशभर से 

अमरनाथ यात्रा दो साल बाद शुरू हुई लेकिन इस बार खराब मौसम ने श्रद्धालुओं को मायूस कर दिया है। शुक्रवार शाम को गुफा के पास बादल फटने के बाद काफी तबाही हुई है। अमरनाथ यात्रा के बारे में जानना दिलचस्प है, आइए जानते हैं कि आखिर इस यात्रा का इतिहास क्या है और क्यों लोग अपनी जान की बाजी लगाकर गुफा के दर्शन करने पहुंचते हैं।

हिमालय में सबसे ऊपर भगवान शिव के गुफा मंदिर की वार्षिक अमरनाथ यात्रा देश के सबसे प्रतिष्ठित तीर्थों में से एक है। हर साल हजारों की संख्या में तीर्थ यात्री मंदिर तक पहुंचते हैं। हालांकि, औपचारिक रूप से यात्रा कब शुरू हुई, इसका कोई सरकारी रिकॉर्ड नहीं है।

अमरनाथ गुफा का इतिहास

आस्था के तौर पर जो मशहूर है उसके मुताबिक जब भगवान शिव ने पार्वती को अपनी अमरता का रहस्य बताने का निर्णय किया, तो उन्होंने हिमालय में अमरनाथ गुफा को चुना। यह गुफा दक्षिण कश्मीर में पड़ती है। गुफा समुद्र तल से 3,888 मीटर की ऊंचाई पर है, जहां सिर्फ पैदल या टट्टू के जरिए ही पहुंचा जा सकता है। गुफा तक पहुंचने के दो रास्ते हैं। एक रास्ता पहलगाम की वादियों से जाता है तो दूसरा रास्ता बालटाल से जाता है। तीर्थ यात्री पहलगाम से 46 किमी या बालटाल से 16 किमी की दूरी पर घुमावदार पहाड़ी रास्ते से यात्रा करते हैं।

अमरनाथ का मुस्लिम कनेक्शन

कश्मीर की वादियों में एक लोककथा गूंजती है। जिससे पता चलता है कि अमरनाथ गुफा का मुस्लिम कनेक्शन भी है। घाटी में बचे कश्मीरी पंडित भी इस कहानी को सही बताते हैं। लोककथा के अनुसार, अमरनाथ गुफा की खोज 1850 में बूटा मलिक नाम के एक मुस्लिम चरवाहे ने की थी। मलिक अपने जानवरों के झुंड के साथ पहाड़ में बहुत ऊंचाई तक चले गए। एक संत ने बूटा मलिक को कोयले का एक थैला दिया। घर लौटने के बाद, मलिक ने बैग खोला, और उसमें गोल्ड भरा हुआ था। खुशी से पागल बूटा मलिक उस जगह तक दौड़ते हुए उस संत का शुक्रिया अदा करने पहुंचे लेकिन उस संत का दूर दूर तक पता नहीं था।इसके बजाय उन्होंने वहां एक वह गुफा पाई और उसमें बर्फ से बना लिंगम था। बूटा मलिक हिन्दू धर्म से परिचित थे और प्रतीक चिह्न का मतलब बखूबी जानते थे।बर्फ का यह लिंग भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी पूजा होती है। बर्फ का लिंग, गुफा की छत में एक जगह से पानी के लगातार टपकते रहने से बनता है। यही पानी जमता जाता है। फिर यह लिंग का आकार लेता है। शिव लिंगम को हर साल मई में अपना पूर्ण आकार मिलता है, जिसके बाद यह पिघलना शुरू हो जाता है। अगस्त तक यह पिघल जाता है। शिव लिंगम के बाईं ओर दो छोटे बर्फ के डंठल हैं, जो पार्वती और भगवान गणेश का प्रतिनिधित्व करते हैं।

अब कहां है बूटा मलिक का परिवार

बूटा मलिक और उनके परिवार ने इस पवित्र गुफा के बारे में अपने जानने वाले कश्मीरी पंडितों को बताना शुरू किया। इस मुस्लिम परिवार ने ही गुफा के देखरेख की जिम्मेदारी संभाल ली। धीरे-धीरे कश्मीरी पंडितों का जत्था यहां आने लगा। फिर दशनामी अखाड़े और पुरोहित सभा मट्टन के पुजारी भी समय के साथ इसके गुफा के संरक्षक बन गए। आस्थाओं के इस अनूठे ग्रुप ने अमरनाथ को कश्मीर की सदियों पुरानी सांप्रदायिक सद्भाव और मिलीजुली संस्कृति के प्रतीक में बदल दिया। 2000 में, मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की सरकार ने कहा कि अमरनाथ यात्रा में सुविधाओं और सुधार की जरूरत है। हमारी सरकार इसमें कुछ बदलाव लाएगी। उन्होंने श्री अमरनाथजी श्राइन बोर्ड बनाने का ऐलान किया। इसके बाद राज्यपाल की अध्यक्षता में यह बोर्ड गठित हुआ।

अफसोसनाक

बोर्ड बनने के बाद मलिक परिवार और हिंदू संगठनों को बेदखल कर दिया गया था। इसमें कोई शक नहीं कि इससे यात्रा व्यवस्थित हुई। लेकिन इसकी सबसे अनूठी विशेषताओं में से एक हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक सद्भाव को दूर कर दिया। दूसरे राज्यों से आने वाले हिन्दू श्रद्धालु पवित्र गुफा के मुस्लिम कनेक्शन के बारे में नहीं जानते। लेकिन कश्मीर की वादियों में बूटा मलिक की लोककथा आज भी मशहूर है। बूटा मलिक के वंशज आज भी मौजूद हैं। वे भी अमरनाथ यात्रा में हिस्सा लेते हैं लेकिन अब वो श्रद्धालु में तब्दील हो गए हैं। वे चुपचाप दर्शन के लिए आते हैं और चले जाते हैं। कोई नहीं जानता कि वो कब आते और कब चले जाते हैं। पुरोहित सभा मट्टन के से जुड़े लोगों ने बताया कि तीर्थयात्रा शुरू में 15 दिन या एक महीने के लिए होती थी। 2005 में श्री अमरनाथजी श्राइन बोर्ड ने तीर्थयात्रा को लगभग दो महीनों में फैलाने का निर्णय लिया।

अमरनाथ यात्रा के दो दुश्मन

अमरनाथ यात्रा के दो सबसे बड़े दुश्मन मौसम और दहशतगर्दी हैं। साउथ कश्मीर के इस हिस्से में खासतौर से जून-जुलाई में मौसम का कोई भरोसा नहीं होता है। चार दिन पहले से ही मौसम विभाग बता रहा था कि भारी बारिश होगी और बिजली चमकेगी। दरअसल यही दोनों स्थिति बादल फटने का भी कारण बनती हैं। चार दिनों से इस इलाके में जबरदस्त बारिश हो रही थी। इसी के बीच शुक्रवार शाम को यहां बादल फट गया। होना तो यह चाहिए था कि जब मौसम इतना खराब था तो यात्रा को पूरी तरह रोक दिया जाता और रास्ते में फंसे लोगों को शिफ्ट कर दिया जाता। लेकिन रास्ते में जो लोग थे, वे टेंटों में ठहरे हुए थे। मौसम की मार सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों पर पड़ी है। यह तो बोर्ड का ये बहुत अच्छा नियम है कि 13 साल से कम और 75 साल से ज्यादा वाले लोगों को अमरनाथ यात्रा की अनुमति नहीं है। वरना मरने वालों की तादाद इस बार ज्यादा होती। बहरहाल, इस कुदरती हादसे के बाद सेना, अन्य सुरक्षा बल और राहत एजेंसियों ने बचाव कार्य बहुत मुस्तैदी से किया और तमाम लोगों को बचा लिया गया। राहत कार्य करने वालों की जितनी तारीफ की जाए कम है।दहशतगर्दी अमरनाथ यात्रा की दूसरी सबसे बड़ी दुश्मन है। तीर्थयात्रा के लिए पहला सुरक्षा खतरा 1993 में आया, जब पाकिस्तान स्थित हरकत-उल-अंसार ने यात्रा पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की। उसी समय हिन्दू संगठनों ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया था। हरकतुल अंसार ने उसका बदला लेने की घोषणा की थी। इस फरमान की व्यापक निंदा हुई और स्थानीय उग्रवादी समूहों ने इसका समर्थन नहीं किया। आतंकवाद उस समय चरम पर था लेकिन अमरनाथ यात्रा बिना रुके आगे बढ़ी। उसके बाद उग्रवाद के चरम दौर में भी अमरनाथ यात्रा बिना किसी रुकावट चलती रही।सन् 2000 में अमरनाथ यात्रियों को सीधे टारगेट किया गया। तीर्थ यात्रियों के पहलगाम आधार शिविर पर आतंकवादी हमले में 17 तीर्थयात्रियों सहित 25 लोग मारे गए थे। इसके बाद के दो वर्षों में, बड़े और छोटे हमलों में कई यात्री मारे गए।2002 के बाद कोई बड़ी घटना नहीं हुई। 2008 में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जब सरकारी भूमि ट्रांसफर हुई तो उसके खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध के दौरान भी यात्रा अप्रभावित रही। यहां तक ​​कि घाटी और जम्मू के हिंदू बहुल क्षेत्रों को सांप्रदायिक आधार पर तेजी से विभाजित किया गया। इसके बावजूद मोहल्ला समितियों से जुड़े मुसलमानों ने श्रीनगर और गांदरबल जिलों में यात्रियों के लिए लंगर का आयोजन किया था।2010 और 2016 के दौरान कश्मीर में जो अपराइजिंग या विद्रोह हुआ, उस दौरान भी अमरनाथ यात्रा पर खरोंच तक नहीं आई। जुलाई 2017 में, गुजरात से तीर्थयात्रियों को लेकर आई बस पर हुए आतंकी हमले में सात तीर्थयात्री मारे गए थे। इस बस का ड्राइवर मुसलमान था और उसने बहादुरी दिखाते हुए तमाम यात्रियों को बचा लिया था।

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