डंके की चोट पर : दलित दूल्हे को घोड़े से उतारने का मतलब समाज में अभी मानसिक विकृति की दुर्गंध बची हुई है..

रणघोष खास. प्रदीप नारायण


  हरियाणा के  रेवाड़ी जिले के गांव रतनथल में दलित दूल्हे को घोड़े से उतारने की घटना अगर पूरी तरह से सच है तो समझ जाइए समाज में अभी भी इस तरह की घटनाओ को अंजाम देने वाली मानसिक विकृतियां बची हुई  है। जिसका इलाज कोई ओर नहीं इस घटना के गवाह बने ग्रामीणों को मिलकर करना होगा। दो- चार उपद्रवी तत्वों की हरकतों से पूरे समाज व सालों पुराने भाईचारे  को दोषी नहीं ठहराया जा सकता  लेकिन माफ करने की गुंजाइश भी नहीं रहनी चाहिए। सही मायनों में इस तरह की घटना को अंजाम देने वाले कोरोना से ज्यादा खतरनाक वायरस है जिसका इलाज बिना देरी किए समाज के लोगों करना चाहिए। पीड़ित के परिजनों ने शिकायत दर्ज नहीं कराईं उसकी कई वजह हो सकती है। ऐसे में इस मसले को निजी मानकर रफा दफा नहीं किया जा सकता। रतनथल के ग्रामीणों को चाहिए कि वह गांव पर लगे इस धब्बे को धोने के लिए आगे आकर ऐसा कदम उठाए ताकि भविष्य में कोई ऐसा सोचने की जुर्रत ना दिखा सके। अक्सर शादियों के मौसम में देश के किसी किसी हिस्से से ऐसी किसी घटना की खबर ही जाती है। आधुनिकता और लोकतंत्र के बावजूद यह चेतना नहीं रही है कि सभी नागरिक समान हैं। इस तरह की घटनाएं सामाजिक बराबरी की तरफ़ कदम बढाने से रोकने का दुस्साहस है। खासकर गांवों में समाज अभी भी स्थिर हैं। दुनिया में किसी भी देश में इसे सामान्य नहीं माना जाएगा. 21वीं सदी में तो इसे किसी भी हालत में आम घटना के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए।  इस बीमार मानसिकता का मनोचिकित्सकों और समाजविज्ञानियों को अध्ययन करना चाहिए। यह समझने की कोशिश की जाए कि आधुनिकता और लोकतंत्र के इतने सालों के अनुभव के बाद भी कुछ कतिपय लोग सभ्य क्यों नहीं बन पाए रहे हैं. ऐसी कौन सी चीज है, जिसकी वजह से ये  यह मानने को तैयार नहीं हैं कि वे भी बाकी लोगों की तरह इंसान हैं और उन्हें कोई जन्मगत विशेषाधिकार हासिल नहीं हैं और ही कुछ लोग सिर्फ जन्म की वजह से छोटा हैं। अगर पुराने दौर में उन्हें कुछ विशेषाधिकार हासिल थे भी तो लोकतंत्र में उन्हें यह सुविधा हासिल नहीं है। इसे भारतीय आधुनिकता की समस्या के तौर पर भी देखा जाना चाहिए. यूरोप और अमरीका में परंपरा और पुरातन की कब्र पर आधुनिकता का विकास हुआ. जो कुछ सामंती या पतनशील था, उसे खारिज करने की कोशिश की गई. चर्च और पादरियों को पीछे हटना पड़ा, तब जाकर बर्बर यूरोप बदला और वहां वैज्ञानिक और औद्योगिक क्रांति हुई। यूरोप से सीखी हुई आधुनिकता और भारतीय परंपरा के नाम पर जारी अन्याय भारत में गलबहियां कर गए. जीवन जीने का ढर्रा नहीं बदला, यही वजह है कि उपग्रह प्रक्षेपण की सफलता के लिए मंदिर में पूजा को सामान्य माना जाता है। यहां इंटरनेट जैसे आधुनिक प्लेटफॉर्म पर जाति और कम्युनिटी के मेट्रोमोनी डॉट कॉम चलते हैं। जातिवाद एक व्यापक समस्या का ही हिस्सा है जहाँ वैज्ञानिक चेतना और लोकतांत्रिक सोच से टकराव हर स्तर पर दिखाई देता है, मसलन, क्या ये धार्मिक मामला है कि दिल्ली में अरबिंदो मार्ग पर आईआईटी के गेट पर शनि मंदिर बनाया गया है जहां टीचर और स्टूडेंट सरसों का तेल चढ़ाते हैं? भारतीय समाज कई मामलों में एक भैंसागाड़ी की तरह है जिसमें इंजन लगा दिया गया हो। भारत ने लोकतंत्र जैसी आधुनिक शासन प्रणाली को तो अपना लिया गया, लेकिन समाज में गोलबंदी का आधार धर्म और जाति बने रहे. संविधान सभा में बाबा साहेब आंबेडकर ने इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में स्वीकार किया था। उन्होंने कहा था कि हर व्यक्ति का एक वोट और हर वोट का एक मूल्य तो है लेकिन हर व्यक्ति समान नहीं है. उन्होंने उम्मीद जताई थी कि यह स्थिति बदलेगी। इस घटना ने एक बार फिर भारत के संविधान निर्माताओं को निराश किया है.

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