किसान आंदोलन से खतरनाक है एक दूसरे के प्रति भरोसा खोना..

 रणघोष खास. देशभर से


   बुधवार को एक बार फिर किसान संगठनों ने केंद्र सरकार के प्रस्ताव को एक सिरे से ठुकरा दिया। यानि हालात अब संभलेंगे नहीं बिगड़ने के रास्ते पर चलने की तैयारी में हैं। आखिर क्या वजह है कि सरकार और किसान के बीच भरोसा खत्म होता जा रहा है। देश केा सरकार चलाती है और सरकार में बैठे लोग बेहद जिम्मेदार होते हें। हालात यह हो चुके हैं कि किसानों का अब उन पर भी भरोसा कायम नहीं हो पा रहा है। मुंबई स्थित आर्थिक विशेषज्ञ विवेक कौल का कहना है कि  केंद्र सरकार को क़ानून लाने से पहले किसानों और राज्य सरकारों को इसके लिए राज़ी करना चाहिए था। हमेशा की तरह, केंद्र सरकार तफ़सील में नहीं गई. उसने सिर्फ़ इस बारे में बात की कि किसान कैसे इस क़ानून से लाभ उठाएंगे और अपनी बात को आक्रामक तरीके से रखते रहे. लेकिन किसानों को पेश आने वाली परेशानियों और क़ानून को लागू करने में दिक़्क़तों के बारे में कोई बात नहीं की। विश्वास की कमी से अधिक, सरकार ने ऑपरेट करने का अपना एक तरीका चुना है. इसने एक फ़ैसला ले लिया है और इसे लागू करने पर तुली है. बातचीत और चर्चा करना इस सरकार की उपलब्धि नहीं है। वो सरकार के इस फैसले की नोटबंदी और जीएसटी जैसे जल्दबाज़ी में लिए गए फैसलों से तुलना करते हैं। क़ानून लाने से पहले सरकार को हर तरह के किसानों, उनकी संस्थाओं, कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों और किसान नेताओं से बातचीत करनी चाहिए थी और ज़मीनी सच को नज़र में रखना चाहिए था। अब कड़े विरोध से उन्हें किसान की  ताक़त का अंदाज़ा हुआ है। सरकार के अनुसार इससे किसानों की आय में इज़ाफ़ा होगा और उन्हें बिचौलियों के शोषण से बचाया जा सकेगा. लेकिन किसानों को उन पर भरोसा नहीं। कृषि विशेषज्ञो का कहना है कि “इस बात की संभावना कम है कि बड़े उद्योगपति और कॉर्पोरेट की दुनिया की बड़ी कंपनियां राज्य सरकार के सहयोग के बगैर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कर सकेंगे या ट्रेड मार्किट स्थापित कर सकेंगे. छोटे किसानों से सीधा संपर्क करना उनके लिए असंभव होगा। कुल मिलाकर इन तीन बिलों की नींव ही बिना आपसी विश्वास के रख दी गई जो आज सबसे बड़ी विवाद की वजह बन गई है।

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